लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> बिना दीवारों के घर

बिना दीवारों के घर

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2782
आईएसबीएन :81-7119-759-0

Like this Hindi book 19 पाठकों को प्रिय

180 पाठक हैं

स्त्री-पुरुष के बीच परिस्थितिजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर परत पड़ताल करने वाली नाट्य-कृति.....

बिना दीवारों के घर जो है उसकी दीवारें हैं, लेकिन लगभग ‘न-हुई’ सी है। एक स्त्री ‘अपने’ व्यक्तित्व की आँच में वे नहीं सभाँल पातीं, और पुरूष जिसको परम्परा ने घर के रक्षक, घर का स्थपति नियुक्त किया है, वह उन पिघलती दीवारों के सामने पूरी, तरह असहाय ! यह समक्ष पाने में कतई अक्षम कि पत्नी की परिभाषा भूमिका से बाहर खिल और खुल रही उस स्त्री से क्या सम्बन्ध बने ! कैसा व्यवहार किया जाए ! और यह सारा असमंजस, सारी सुविधा और असुरक्षा एक निराधार संदेह के रूप में फूट पड़ती है। आत्मा और परिपीड़न का एक अनन्त दुश्चक्र जिसमें घर की दीवारें अन्ततः भहरा जाती हैं।

स्त्री-स्वातंत्र्य के संक्रमण काल का नाटक यह खास तौर पर पुरुष को सम्बोधित है और उसमें एक सतत सावधानी की माँग करता है कि बदलते हुए परिदृश्य से बौरा कर वह किसी विनाशकारी संभ्रम का शिकार न हो जाए, जैसे कि इस नाटक का ‘अजीत’ होता है।

स्त्री पुरूष के बीच परिस्थितजन्य उभर जाने वाली गाँठों की परत-दर-परत पड़ताल करने वाली महत्त्वपूर्ण नाट्य-कृति हैः बिना दीवारों के घर।

भूमिका

'बिना दीवारों के घर' नाटक का प्रथम संस्करण 1966 में हुआ था और साल-डेढ़ साल बाद ही इसका दूसरा संस्करण भी आ गया। कुछ शहरों में इसका सफल मंचन भी हुआ और इसने प्रशंसा भी बटोरी पर दिल्ली और ग्वालियर की प्रस्तुतियाँ देखकर मुझे लगा कि थोड़े से सम्पादन-संशोधन से इसे और अधिक चुस्त और प्रभावपूर्ण बनाया जा सकता है, सो मैंने तीसरा संस्करण छपने से रोक दिया, लेकिन उस समय मैं 'आपका बंटी' उपन्यास से जूझ रही थी। उससे मुक्त हुई तो दूसरी व्यस्तताओं ने कुछ इस तरह घेर लिया कि मानसिक धरातल पर फिर से इस नाटक के साथ जुड़ पाना मेरे लिए सम्भव ही नहीं रहा तो प्रकाशक ने 1976 में इसका तीसरा संस्करण छाप दिया।

1979 में अपने ही कॉलेज (मिराण्डा-हाउस) में मंचित करने के लिए जब निर्देशक रामगोपाल बजाज ने इस नाटक का केवल चुनाव ही नहीं किया बल्कि मेरे विरोध करने पर अड़ भी गये कि वे इसी नाटक का मंचन करेंगे और यदि मुझे आपत्ति है तो मैं तुरत-फुरत इसका संशोधन आरम्भ कर दूँ, वरना वे इसी रूप में खेलेंगे, क्योंकि उन्हें तो नाटक के इस रूप से भी कोई आपत्ति नहीं है। यह बज्जू भाई की ज़िद ही थी जिसने वर्षों से स्थगित हो रहे काम की ओर मुझे ठेल ही दिया और फिर तो जैसे ही मैं नाटक के साथ पूरी तरह जुड़ी, उसका कथ्य उसके पात्र मुझ पर छा गए और लिखने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो वह नाटक का मात्र सम्पादन-संशोधन ही नहीं रहा बल्कि एक तरह से पुनर्लेखन ही हो गया। पात्र केवल नया व्यक्तित्व लेकर ही नहीं उभरे बल्कि उनकी भाषा (संवाद) भी बदल गई और नए आयामों ने कथानक का तो कायाकल्प ही कर डाला ! अजीब अनुभव था वह भी-रोज़ मैं दो-तीन दृश्य लिखती थी और उनका रिहर्सल शुरू हो जाता था यानी कि लेखन और रिहर्सल साथ-साथ चलते रहे। जब मंचन हुआ तो प्रस्तुति बहुत ही सफल और प्रभावपूर्ण रही-यह मेरा अनुभव नहीं, दर्शकों की प्रतिक्रिया थी और तब मैंने फिर नाटक के चौथे संस्करण को रोक दिया क्योंकि अब नाटक को नए रूप में ही आना था। योजना यही थी कि बेहद हड़बड़ी में लिखे गए इस नाटक को छपवाने से पहले एक बार फिर रिवाइज करूँगी पर थोड़े से अन्तराल के बाद,जिससे अभी की इस प्रस्तुति से मुक्त हो सकूँ-पूरी तरह; लेकिन दुर्भाग्य से हाथ से लिखी मेरी उस इकलौती पांडुलिपि को दीमक ने कुछ इस तरह चाटा कि नाटक के उस नए प्रारूप का अस्तित्व ही मिट गया।

अब तो मुझे लगता है कि नाटक के इस रूप में भी ऐसा कुछ है जरूर जो मेरी संशोधन-सम्पादन-पुनर्लेखन की योजनाओं को बार-बार ध्वस्त करके अपने को फिर से छपवा ही लेता है तो मैं ही अब न छपवाने का दुराग्रह लेकर क्यों बैठूँ? लम्बे अन्तराल के बाद चौथा संस्करण अब इसी रूप में सही।
-मन्नू भण्डारी

पहला अंक

पहला दृश्य


(पर्दा उठता है। अजित का ड्राइंग-रूम। अस्त-व्यस्त-सा। सबेरे के आठ बजे हैं। भीतर से तानपुरे पर आलाप लेता हुआ नारी-स्वर सुनाई देता है। अजित कुछ गुनगुनाता हुआ प्रवेश करता है। चेहरे पर हजामत का साबुन लगा है, हाथ में खाली रेज़र। इधर-उधर कुछ ढूँढ़ता है, फिर खिजलाए-से स्वर में पुकारता है।)

अजित : शोभाऽऽ- (भीतर से गाने का स्वर पूर्ववत आता रहता है।

आवाज़ को सप्तम-स्वर पर ले जाकर) श्रीमती शोभा देवी जीज-(भीतर गाने का स्वर बन्द हो जाता है।)

(शोभा का प्रवेश)

शोभा : क्या है? क्यों घर सिर पर उठा रखा है?

अजित : मैं पूछता हूँ इस घर में कभी कोई चीज़ ठीक जगह पर भी रहती है या नहीं?

शोभा : क्या चाहिए आपको?

अजित : एक घंटा हो गया, कहीं ब्लेड का पता नहीं और तुम हो कि वहाँ बैठकर अलाप रही हो-

शोभा : ओ होऽऽ! तो अब आपकी चीजें ठिकाने पर रखने का काम भी मेरा है? (दराज से ब्लेड निकालकर देती है।)

अजित : अरे, मेरी चीज़ तुम्हारी चीज़ क्या होता है? सारी चीजें घर की हैं, और घर की हर चीज़ ठिकाने पर है या नहीं, यह देखना औरत का काम है। बोलो, है या नहीं? बोलो-बोलो-

शोभा : अच्छा, मान लिया है। अब जरा यह भी बता दीजिए कि घर के आदमी का क्या काम है? घर की हर चीज़ को इधर-उधर फेंकते फिरना और फिर दुनिया भर का शोर मचाना, क्यों?

अजित : हाँ-हाँ! (हँसता है।) शोभा, समझती तुम सब हो! अरे, बीवी अपनी बड़ी समझदार है (भीतर से आवाज़ आती है) ममी-ममी, हमारे मोज़े कहाँ रखे हैं? (शोभा अजित को देखती है।)

शोभा : लो, अब बिटिया के मोजे नहीं मिल रहे।

अजित : उसे समझाओ भई, कि अपनी चीज़ सँभालकर रखा करे। यह शिक्षा तो तुमको देनी चाहिए उसे कम-से-कम।

शोभा : (जाते-जाते) अच्छा जी, तो आप यह कह रहे हैं? लापरवाही से चीजें रखने में वह आपकी बिटिया नहीं, गुरु है गुरु। (प्रस्थान)

(अजित जल्दी-जल्दी हजामत समाप्त करता है, नहाने के लिए भीतर जाने लगता है। शोभा का प्रवेश।)

अजित : (हजामत का सामान उठाते हए) देखो, मैं अपना सामान अपने-आप साफ़ करने ले जा रहा हूँ।

शोभा : बड़ी मेहरबानी आपकी।

अजित : तुम ज़रा कमरा ठीक कर दो। हो सकता है मिस्टर अग्रवाल को मुझे अपने साथ ही लाना पड़े। वैसे मैं लाऊँगा नहीं, फिर भी-(प्रस्थान)

शोभा : (कमरा ठीक करते हुए) चाहती हूँ सबेरे कम-से-कम घंटा आधा घंटा रियाज़ के लिए ही निकाल लूँ, सो भी नहीं हो पाता। यहाँ किसी से भी तो अपना काम नहीं होता। घर का काम देखो, कॉलेज का काम देखो-ऊपर से नौकर और चला गया!

Next...

प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai